Monday 23 December 2013

संबंधों के रेशे



संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
शून्य से हो के शुरू
नित नये समीकरणों से गुज़रते
पहुँचना चाहते थे
जहाँ हम दोनों हों समान हक़दार

संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
सहेज कर पिरोते ताना-बाना
सरल से जटिल की ओर
बुनना चाहते थे बूटे
जिनमें रंग सभी हों चमकदार

संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
अहम के आकड़ों में
रह गये उलझे ...घायल
टूटे ताने-बानों में
बिखरे बूटों को समेटते
रोज़ बदल रहे हैं
तुम्हारा और मेरा किरदार


Sunday 1 December 2013

क्यूंकि ...

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
सामंजस्य बिठाना था
हर सुख हर दुःख से
पिंजरे वही थे
आस-निराश के
आँसू और मुस्कान के
बस ...बदल गया था
हवाओं का रुख और
पानी का स्वाद
...बदल गये थे
कुंजी से खेलते हाथ

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
क्यूंकि नहीं होता
अपना आसमान
पिंजरे के पंछी के पास
और ना ही होती है
अपनी कोई धरती
सलाखों पर टिके पाँव की
सपने नहीं होते आँखों में
भरी होती है कृतज्ञता
आधी मुठ्ठी दानों के वास्ते

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
बिना प्रश्न किये कि
किसने लिखे ये नियम
किसने बनाया संविधान
क्यूँ हो मेरी इच्छा से इतर
मेरी नियति का निर्धारण

हाँ ....मैंने मारी है चोंच
उन्हीं हाथों को ...
जिनमे भरे थे दाने मेरे वास्ते
क्यूंकि मुझे चाहिये थी
फूलों की महक से लदी
मेरे हिस्से की ड़ाल
आज़ाद बादलों से भरा
मेरे हिस्से का आकाश
वो सुख और वो दुःख भी
जिन्हें बाँट सकूँ अपनों के साथ
थक चुकी हूँ  ...आँसू की ताल पर
ख़ुशी का गीत गाते
अब बढ़ चली हूँ मैं
...तुम्हारी हद से बाहर
क्यूंकि .........
नहीं स्वीकारना मुझे
हँस कर ...विनम्रता से
पिंजरे का जीवन


Monday 25 November 2013

याद



कब से पड़ी थी चौखट पे
नैनन में थी समाये रही
आ थोडा तुझे निचोड़ लूँ
अरी !बच के कहाँ जायेगी

करती है मुझसे दिल्लगी
नये खेल काहे रचाय री
धर लूँगी बैया आज तो
अरी !बच के कहाँ जायेगी

कूक-कूक मन को रिझाये
फुदके है ज्यूँ मुनिया कोई
ले पंख तेरे मैं भी उड़ूँ
अरी !बच के कहाँ जायेगी

Thursday 7 November 2013

हवायें

लौ को बचाने की जुगत में
ढीठ हवाओं से जूझ रहे थे
.....कुछ मासूम दिये
जाने कब ...अचानक
मनचली हवाओं ने लहरा कर
......तीली और बारूद
उड़ा दी....रोशनी की सारी कतरनें
अब रह गया है शेष .....
चीख .....धुंआ
बेबसी के टुकड़े
और नमकीन आँखों में
बुझी चिंगारियों की राख 

हवाओं पे मचलता
नेपथ्य का संगीत
आज भी गुनगुनाता है
वही पुराना ख़ुशनुमा  गीत
फिर भी जाने क्यूँ ...
मायने ....बदले से लगते हैं 
ख़ुशी की जगह अब
चिपक गये हैं अर्थ ....घावों पर
...नमक की तरह

अनवरत ...अबाधित
अपनी सुविधा से
बही जा रही हैं  ....
हवाओं को नहीं होता सरोकार
दिये की मासूमियत से

Friday 25 October 2013

अनबूझा प्रश्न



वो शब्द अलंकार
जिन्होंने गढ़ी
प्रेम की परिभाषा
मेरे तुम्हारे बीच
मेरी कल्पना थी
कविता थी
या ...थे तुम

स्वप्नों का ब्रह्मांड
जिसमें पूरक ग्रहों से
करते रहे परिक्रमा
मैं और तुम
मेरी कल्पना है
कविता है
या हो तुम

काल से चुराया एक पल
जिसको पाकर
बढ़ गयी जिजीविषा
मुझमें ... तुम में
मेरी कल्पना है
कविता है
या हो तुम

Thursday 26 September 2013

एक कविता लिखनी है...


शब्द ...गहरे अर्थों वाले
भाव ...कुछ मनचले से
श्वास भर समीर ......चंचल महकी
सफेद चंपा ......कुछ पत्तियाँ पीली
एक राग मल्हार
एक पूस की रात
घास ...तितलियाँ
बत्तख ...मछलियाँ
फूलों के रंग ...वसंत का मन
तड़प ...थोड़ी चुभन
स्मृति की धडकन
एक माचिस आग
एक मुठ्ठी राख
एक टुकड़ा धूप
चाँद का रुपहला रूप
सब बाँधा है आँचल में
और हाँ ...एक सितारा
बस एक ...अपने नाम का
टाँका है अपने गगन में

रुको ! कुछ स्वार्थ भी भर लूँ
.....संवेदना के भीतर
एक कविता जो लिखनी है मुझे ...
अपने ऊपर- 
 

Wednesday 4 September 2013

सनद

सितारे जड़े आँचल में
चाँद सा चेहरा किया
और अन्तरिक्ष की डोर
थमा दी मेरे हाथ 
अब घिरी हूँ मैं ग्रहों से
अपनी धुरी पे नाचती
न भीतर न बाहर
परिधि की लकीर भर 
....दुनिया मेरे पास

नहीं ...बेवजह न था
सनद में लिखना तुम्हारा
आकाश मेरे नाम

Monday 26 August 2013

शब्द आग-आग है.....

ज़हर है शिराओं में
शब्द आग-आग है
कलम के सिरों पे अब
धधक रही मशाल है

रूह की बेचैनियाँ
स्याह रंग बदल रहीं
चल रही कटार सी
लिए कई सवाल है

ध्वस्त हैं संवेदना
लोटती अंगार पे
अर्थ हैं ज्वालामुखी
लावे में उबाल है

स्वप्न चढ़ चले सभी
वेदना की सीढ़ियाँ
नज़्म के उभार में
लहू के भी निशान हैं

बस्तियाँ उम्मीद की
जल रहीं धुँआ-धुँआ
छंद-छंद वेदना
प्रलाप ही प्रलाप है

उभर रहीं हैं धारियाँ
पाँत-पाँत घाव सी
बूँद-बूँद स्याही में
जाने क्या प्रमाद है 

Monday 12 August 2013

अवसान के द्वार पर ...

स्वच्छ श्वेताकाश में बदलियाँ
किसे चल रहीं पुकारती
बूँदें ....आसमान से टपक
रह जातीं अधर में लटकी
दूर ....चटख रंगों का इंद्र-धनुष
कानों में गूँजती कोयल की कूक ....
शायद वही .....नहीं ....पता नहीं !!
मखमली घास के बिस्तर पर चुभन सी
रंगीन पंखुड़ियाँ ....दूर हैं ?....पास हैं ?
क्यूँ है उलझन सी ???
बह जाने की चाहत
और हवा इतनी मद्धम
कुछ घुटन ...कुछ बेचैनी
नाड़ियों में थमने लगी है ...
तरसी आँखों की नमी
जाने फरिश्तों की क्या है मर्ज़ी !!

समीप खड़ा बाहें पसारे
जीवन का अवसान
संग ले आया है ...स्वर्ग की सीढ़ी
फिर भी ....प्रतीक्षित नयन द्वार पे
आता होगा तारनहार 
चख लूँ ज़रा ...अंतिम बार
इन आँखों से ...ममता की नमी
ओह !
क्या रहेगी ये प्रतीक्षा भी निहारती
...अनंत की ठगनी   

Monday 22 July 2013

दास्तां समझ आती नहीं .....

खो गया वजूद मेरा यूँ 
वक़्त की सख्त दरारों में 
मेरे हिस्से की धूप अब 
मुझ तक ही आ पाती नहीं 

आसमां पे टँगा रहा जो  
मीनारों तक पहुंचा है 
बिखरे टुकड़े चाँदनी,पर 
छत तक सीढ़ी जाती नहीं

तारों की झिलमिलाहट में
सपने भी मुस्कुराये थे  
अँधेरा हुआ है आसमां 
सपनों को सुध आती नहीं 

हर मरहला जवां रौनकें
दिशाओं में है रवानगी 
क्यूँ उलझी राहें इस कदर 
मंज़िल किधर बताती नहीं 

नर्म बादलों के कारवां 
बरसते गुज़रे आँगन से 
सदी पुरानी है बात ये 
अब मन को बहलाती नहीं 

दरो दीवार ही खो गये 
बेहिस ज़िन्दगी सँवारते 
जीत और कब हार अपनी 
दास्तां समझ आती नहीं  

Friday 12 July 2013

ख्वाहिश की झील

ख्वाहिशों की झील में
काई ने घर बनाया है
नीला सा आसमान
थोड़ा सा धुंधलाया है

किनारों की सील में  
गहराता है सन्नाटा
खरपात ने दरारों में
फिर आसरा सजाया है

सीढ़ियाँ लिये बैठी हैं  
खामोशी के कदम
युगों से कोई प्यासा भी
इस तरफ कहाँ आया है

आलीशान गुम्बदी
कुकुरमुत्ती हवेली से  
भरमाये हैं मण्डुक
आह!क्या रुतबा पाया है

अमरबेल का हरियाया फर्श
मछलियों की छत पर
चुपके से पाँव  पसार
बढ़ता चला आया है

पानी को ललचायी
साहिल पे बंधी डोंगी
उदास किनारों को  
इस ने हमराज़ बनाया है

अमलतास से लिपटा
झील का सूना कोना
गुमचों में उमंगें भरता  
इकलौता परछाया है

Wednesday 3 July 2013

चंचल नदी

आत्ममुग्धा आत्ममग्न
कलकल कर चली निनाद
पर्वत-पर्वत उलाँघती
बही जाती थी चंचल नदी

हरियाली को पंख लगा
निपट जीव को कर सजीव
अमिय रस धाराओं सी
बही जाती थी चंचल नदी

निर्मल काया सजल हृदय
तरल सुकोमल स्पर्श से
उपल-शिलायें तराशती
बही जाती थी चंचल नदी

पखार तप्त रवि-वल्लरी
झिलमिल आँचल पसार
वारिद पे जीवन वारती
बही जाती थी चंचल नदी

मन-वचन औ' कर्म में भी
छेड़ सृजन की रागिनी
पग-पग जीवन सँवारती
बही जाती थी चंचल नदी

कुत्सित विध्वंस पाश में
जा गिरी धारा थी निश्छल
विस्फरित नयन ताकती
अकुलायी बहुत चंचल नदी

पादप-विहीन पर्वतों में
खोजती है हरित मग
उन्मत बल-वेग धारती
छटपटाती है चंचल नदी

शनै:शनै: घटती हिल्लोर
कोण-कोण के ह्रास से
पतित अवशेष निस्तारती
मलिन हो रही चंचल नदी

विपदा में है घिरी खड़ी
भागीरथी असहाय सी
कब तक सहेगी त्रास ये
बह न पाएगी चंचल नदी 

Sunday 23 June 2013

धरती का रुदन



आज मद में चूर है 
कल रोयेगा ज़ार-ज़ार 
धरती के आंचल को यूँ 
ना कर तू तार-तार 
पर्वत-शिलायें कर देगीं 
अहम के टुकड़े हज़ार 
सागर भी लील जायेगा 
घमंड का कारोबार 
मरुभूमि के व्यंग का 
तब होगा कोई जवाब ?
नागफनी के फूलों से 
कब सजे किसी के ख्वाब !
सूरज का अट्टाहास जब 
भेदेगा तेरे कर्ण 
काँच से चुभ जायेगें 
रेत के भी तृण 
चांदनी भी मैली धूसर 
आग ही बरसायेगी 
उन्मत्त वायु प्रचंड तरंगें 
तन-मन झुलसा जायेगीं 
सूखे जल-प्रवाह से 
कैसे बुझेगी प्यास ?
ठूँठ हुये तट-बंधों पर 
कब तक पालेगा आस ?
धरती का रुदन ही फिर 
बन जायेगा श्राप 
बस पीड़ा संग होगी तेरे 
और होगा संताप 
कह पायेगा जीत इसको 
जब ख़ाली होगें हाथ !
सन्नाटों की बस्ती में 
फिर रोती होगी तान 
मत कर कोशिश बनने की तू 
जगत-पिता भगवान 
 कर ले जीवित मन में बस 
एक सच्चा इंसान .

Thursday 6 June 2013

कठपुतलियाँ

सुनाती हैं कहानियाँ 
यहाँ की वहाँ की 
धरती आसमां की 
या फिर ...होते हैं वो 
छूटे किनारे !!
....कौन जाने 
सच है क्या ....और क्या छलावे .

दे रखी है ड़ोर 
पराये हाथों में 
नाचती हैं इशारों पर 
या फिर ....होते हैं मजबूर 
नचाने वाले !!
....कौन जाने 
सच है क्या ....और क्या छलावे .

थिरकती मचलती हैं 
सज-धज के संग 
बेपरवाह बेमोल
या फिर ...होते हैं ये 
तिनके से सहारे 
....कौन जाने 
सच है क्या ....और क्या छलावे .

ये किस्से ये कहानी 
वो इशारों की रवानी 
थिरकना मचलना 
उलझना ....उलझाना 
मनमर्ज़ी है ...या फिर 
दुनियावी दिखावे 
....कौन जाने 
सच है क्या ....और क्या छलावे .

Saturday 25 May 2013

इनकार की कीमत.



सागर सी गहरी आँखों में 
खाली एक धुंआ सा है  
सूरज तो कब का डूब चुका 
अब तो बस अमावस्या है 
मेले थे जिन राहों में 
नागफनी उग आयी है 
अपनी ही मंज़िल है लेकिन 
खुद से ही कतराई है 
स्वाद सुगंध कब बीत गए 
यादों में भी याद नहीं
सन्नाटे कहकहे लगाते  
और कोई संवाद नहीं 
झुलस गये सपनों की गाथा 
हर कोने में साबित है 
नाखूनों के पोरों तक में 
चिंगारी का हासिल है 
अपनी छाया भी नाज़ुक थी 
दर्पण ने कब झूठ कहा 
क्यूँ ज़ख्म खुले आईने के 
क्यूँ अक्स ड़रा सहमा-सहमा 
एक पल ने जो त्रास दिया 
अम्ल न फिर वो क्षार हुआ 
एक इनकार की कीमत है  
सौदा यही  हर बार हुआ 

(ये रचना एसिड-अटैक की पीड़ितों को समर्पित है )

Tuesday 7 May 2013

क्या हूँ मैं ?



कलाई से कांधों तक आभूषित 
एक नारी का प्रतिमान 
मोअन-जो-दाड़ो में दबा 
मेरा अनकथ संसार 
क्या हूँ मैं ?
पन्नों में सिमटा .....
मात्र एक युगीन वृत्तान्त ??? 

खोया सारा समर्पित अतीत 
लक्ष्मण-रेखा के पार 
अग्नि भी जला ना पायी 
एक संशय का तार 
क्या हूँ मैं ???
युग-युग से पोषित मानस में 
मर्यादा का प्रचार ???

इच्छा-प्राप्ति से संलग्न 
आशीष में बसा श्राप 
सप्त वचन के उपहास से 
बिंधा आत्म-सम्मान 
क्या हूँ मैं ?
धर्म-युद्ध पर आरोपित 
मुर्ख अहंकार का प्रतिकार ???

देवी से दासी तक झूलता 
एक अनसुलझा विचार 
सदी दर सदी स्थापित 
मानवता का संस्कार 
क्या हूँ मैं ?
बाज़ार के अनुरूप बदलता 
(चित्र गूगल के सौजन्य से)
मात्र एक उत्पाद ???



Saturday 27 April 2013

आईने से मुलाक़ात ...


यूँ आईने से मुलाक़ात किया करो
कभी खुद को भी यारा जिया करो

ज़िन्दगी के सफर में बिछड़े कई
कभी नाम उनका भी लिया करो

रूठों को मनाना नामुमकिन नहीं
कभी सब्र के जाम पिया करो

न रहो अपने ही उजालों में ग़ुम
अँधेरों को भी रोशन किया करो

मौत के इंतज़ार में बेज़ार हो क्यूँ
ज़िन्दगी को एहतराम दिया करो 

ढूंढते हो दैर-ओ-हरम में सुकूं
क्यूँ न गैरों के ज़ख्म सिया करो

Thursday 25 April 2013

आँसू ...

आँसू ..... एक सैलाब
हदों में उफनता बिलखता
या सेहरा में ....भटका समंदर
पत्थर पे सर पटकना
लहरों का बिखरना
सब है देखा-भाला

वेदना ....सुलगी लकड़ी
भीगे ख्यालों से नम
न जलती है ...न बुझ पाती
गीली लकड़ी का जलना
पल-पल सुलगना
सब है देखा-भाला

दिलासा ....महीन शब्द 
महज़ एक उलझन 
सुलझाओ तो ...हो जाते हैं तार-तार 
अर्थ हो गये हैं ग़ुम 
रिश्तों का चेहरा 
सब है देखा-भाला 

Sunday 7 April 2013

धूप का पुर्ज़ा

छप्पर की दरारों से ....
चुपचाप झांकता आया था
नंगे पाँव फर्श पे बैठा उकडूं
फिर थककर ...
खाट पे उंघियाया था
रेंगा था कुछ दूर तलक भी
दीवारों के साये-साये
कस कर थामे रहा जिगर
फिसलन कोई आये-जाये
बिन कोयला दहकाए भाँडे
फूटी हांड़ी घिसी परात
गोया पकी रसोई में
बची रही कोयले की आंच
आधी खुली सुराही पे
लटका था कुछ देर तलक
बूंद-बूंद बतियाया जैसे
सागर पीता पलक-पलक
एक धूप का पुर्ज़ा कल
अपनी निशानी छोड़ गया
सीली हुई दीवारों पर
उजली कहानी छोड़ गया

Tuesday 19 March 2013

यात्रा ...भोर तक

चन्द्र खींचता रात की बग्घी
तारे अपलक ताक रहे थे
ढली हुई पलकों में सज के
स्वप्न सलोने झाँक रहे थे.
मंद-मंद विहसित बयार थी
कुसुम सुगंधी टाँक रहे थे
चन्द्र-प्रभा के घिरते बादल
रजत-चदरिया ढांक रहे थे.
अर्ध-निद्रा में खोयी वसुधा
निशि-चक क्षिति लाँघ रहे थे
पार क्षितिज ऊषा के पंछी
उजला रस्ता नाप रहे थे.
आह ! पहुँच निकट भोर के द्वारे
रात के चक्के हाँफ रहे थे
मयंक स्वेद-कणों के मनके
पंखुरियों पे काँप रहे थे.
किरणें आरूढ़ काल के रथ पे
देव-सूर्य अश्व हांक रहे थे
अहा ! स्वागत में प्रभात के
अंबर रश्मियाँ तान रहे थे.
कुछ ही पल थे शेष विहान में
दिश पूरब खग आँक रहे थे
उजली किरणों के स्वागत में
पंकज पांख पसार रहे थे .

Tuesday 12 March 2013

चाहती हूँ यकीन कर लेना ...

'हर सपना साकार हो सकता है '
सचमुच ???
अभी जा कर पूछती हूँ .....
उन माँओं से ....
सत्य का पाठ पढ़ाकर
जीवन संग्राम में उतार आयीं जो
....अपनी संतानों को
और बदले में पाये अस्थि के फूल ...
सत्य की विजय के वादे
असत्य से ....
पूछती हूँ कलावतियों से ....
भलाई का संकल्प लिये
जो उतर पड़ीं समाज की कीचड़ में
नहीं उबर पातीं लेकिन
किसी भी सदी में
उस दलदल से ....
पूछती हूँ उन स्त्रीयों से
जो हस्तांतरित कर दी जाती है
पिता से पति तक
अधिकार विहीन
मर्यादित कर्तव्य में लिपटी
संस्कृति की डोर से
क्या सचमुच हर सपना
साकार हो सकता है ???
चाहती हूँ यकीन कर लेना
इस सपने पर ...
पर नहीं ...
यथार्थ का अट्टाहास
कुछ और ही समझाता है
हर सपना साकार कहाँ हो पाता है !!!
 

Saturday 9 March 2013

महिला-दिवस .....सचमुच ???




कल का दिन बहुत भारी गया ......रेडियो ...टीवी ......फेस-बुक ....ट्विटर ....ब्लॉग ...सब जगह एक ही चर्चा .....
'नारी तू महान है ......धीरज और प्रेम में तू धरती के समान है ....शक्ति ...नहीं ...नहीं महाशक्ति का अवतार है तू ......तुझ बिन संसार नहीं ........तू ममता का डेरा है '............और भी न जाने क्या-क्या ..
रात होते-होते तक मुझे पक्का विशवास होने लगा था कि और थोड़ी देर में सब मुझे देवी की जगह प्रतिस्थापित करके ही दम लेगें ...सच कहूँ ...बहुत डर गयी थी मैं .....कीमती वस्त्र-आभूषण ....फल,मेवा,मिष्ठान के भरे भण्डार ......धन-संपदा से लबालब कोष .....पर ....फिर मुझे भी तो पत्थर बन कर रहना पड़ेगा .....मूक और बधिर बन कर ...सब कुछ मेरे नाम ...मेरे लिए ......लेकिन मेरा कुछ भी नहीं ......
और फिर एक दिन जब सबका जी भर जाएगा ...ढ़ोल बजाते ...नाचते-गाते मुझे विसर्जित कर आयेगें .....किसी और को देवी के रूप में स्थापित करने के लिए .....
क्या मेरा डरना गलत था ???

Wednesday 6 March 2013

एक गिरह.....

मुहब्बत के कुछ फूल
बड़ी हसरत से
दामन में बाँधे थे
वो कोना ....आंचल का
आज भी मुठ्ठी में दबाया है
जमाने की तपिश
दर्द की गिरफ्त
तुम्हारी तल्खियों से
अभी तलक इसे बचाया है
ज़िन्दगी के मिजाज़ ने
तोड़ डाले ....भरम सारे
न जाने क्यूँ ....
बस यही एक गिरह
खुल न सकी
मुरझाया ही सही ...
अभी तलक ....इक सपना
हथेली पे सजाया है

Monday 4 March 2013

सूरज का गोला


नरम गर्म सूरज का गोला
कितना प्यारा कितना भोला
जग सोये, ये फिर भी जागे
देख इसे अँधियारा भागे।
ऊषा की लाली बिखराये
ओस की बूँदों को पिघलाये
दूर क्षितिज से बढ़ता आये
पर्वत-पर्वत चढ़ता जाये।
माथे चढ़ जग के मुस्काये
भांति-भांति के खेल दिखाये
सर्दी में नरमी जतलाये
गर्मी में अग्नि बरसाये।
संध्या तक ये चलकर जाये
नव-रंगों की छटा सजाये
रात के आने से कुछ पहले
जाते दिन को विदा कराये।
उजियारों के लेकर साये
दूर देस फिर सैर को जाये
कल आएगा रवि का टोला
फिर खोले किरणों का झोला।

Friday 1 March 2013

यादें ...... कभी हंसातीं कभी रुलातीं ......समय की रेत पर छोड़े जा रही हैं अपने निशान



अनमनी और अजान
अवसाद में ...घिरी हैरान
कभी अंधेरों में ढूँढ़ती
खुद अपनी ...खोयी पहचान
सिकुड़ी सूखे पातों सी
गुज़री तंग गलियों से
दीवारों पे बिखरी जैसे
परछाई का देती भान
खुशबू महकाती रहीं
अंतस के ...हरेक कोण 
भेद कभी विषाद-चक्र
भर गयीं ...जीवन में प्राण

रुलाती रहीं
हंसाती रहीं
धुन पुरानी
गुनगुनाती रहीं

पहेलियों में अकसर ये
समझाती रहीं ...
जग का विधान
रंग कोई भी सजा हो
रूप चाहे जो धरा हो
यादें छोडती चल रहीं
समय-सिन्धु की रेत पर ...
अपने पाँव के निशान

Tuesday 26 February 2013

क्या होता है सच ....वो जो इन्द्रियों के दायरे में होता है ...या कुछ और .....



ये सच ही क्यूँकर.....

दीवारों पे लिखे हों,पर
पढने में नहीं आते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
अनपढ़ होते हैं.

सम्मुख हो कर भी ये
दृष्टि में नहीं समाते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
ओझल होते हैं.

कानों में पड़ते सीसे से
मौन मगर रह जाते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
गूंगे होते हैं.

अंतस कर जाते छलनी
असत्य ओढ़ जब आते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
नादां होते हैं.

Sunday 24 February 2013

वो हलकी फुहार ....मंद समीर और फिर इन्द्रधनुष के रंग ......सब कुछ इतना प्यारा था कि बरबस ही कुछ पंक्तियाँ मुख से निकल पडीं ................


छू कर हौले से गुज़रे
हवाओं के पर
गुलमोहर से बरसे पड़े
फूल अंजुलि भर

पात-पात सरसराये
मोती गये फिसल
मुख पे रखते चुम्बन
हँसते रहे चंचल

बुंदियाँ रुक-रुक बरसीं
छम-छम ...छमा-छम
इन्द्रधनुष की रंगत
मेघ-दलों का मन

बदरा के पीछे से झाँके
ढली धूप के रंग
स्वर्ण-किरन यूँ चमकीं
नदिया का दर्पण

बयार सुरभित रागिनी
सन सन ....सनन सनन .....
सुमन-कलिका महक उठीं 
वसुधा हुई चंदन

तान लिए मल्हार की 
बजते मन मृदंग
पुलकित उर गूंज उठी 
प्रीत की सरगम

Thursday 21 February 2013

साँसों का चलना और बस चलते रहना .....बेसबब ...क्या सचमुच यही कहलाता है जीना .....नहीं ना ....तो चलो आज खुद से मुलाक़ात की जाए ..........

 
यूँ आईने से मुलाक़ात किया करो
कभी खुद को भी यारा जिया करो
 
ज़िन्दगी के सफर में बिछड़े कई
कभी नाम उनका भी लिया करो
 
रूठों को मनाना नामुमकिन नहीं
कभी सब्र के जाम पिया करो
 
न रहो अपने ही उजालों में ग़ुम
अँधेरों को भी रोशन किया करो
 
मौत के इंतज़ार में बेज़ार हो क्यूँ
ज़िन्दगी को एहतराम दिया करो
 
ढूंढते हो दैर-ओ-हरम में सुकूं
क्यूँ न गैरों के ज़ख्म सिया करो

Wednesday 20 February 2013

ये बादल ...

अक्सर बादलों को उड़ते देखा है......कभी रोकना चाहा तो रुके नहीं अपनी धुन में मग्न दूर जाते रहे.....कभी मेरे चुप रहने पर भी गरजते बरसते रहे......



ये बादल बड़े अजीब हैं...
घिर आते हैं....दूर तलक
और लौट जाते फिर
बिन बरसे ही.......

ये बादल बड़े अजीब हैं...
रस्ता भटक.....चले आते
बे-मौसम बरस जाते
बिन गरजे ही.........

तुम्हारी आवाज......

तुम्हारी आवाज......

मरघट सी मौन
अव्यथी ....असंपृक्त
हवाओं में गुनगुनाती
बस अपना ही राग
गुजरती रही हर बार
अनसुना कर
परिचित सा
.......आर्तनाद
ओढ़ाने चली आती है अब
अनावृत बिखरे सपनों को 
बेधडक निर्लज्ज सी
लिए खुरदुरा मटमैला
एक झीना सा ...मखमली टाट
मरघट की राख लपेटे
निरंकुश ...निष्ठुर
तुम्हारी आवाज