Tuesday 26 February 2013

क्या होता है सच ....वो जो इन्द्रियों के दायरे में होता है ...या कुछ और .....



ये सच ही क्यूँकर.....

दीवारों पे लिखे हों,पर
पढने में नहीं आते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
अनपढ़ होते हैं.

सम्मुख हो कर भी ये
दृष्टि में नहीं समाते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
ओझल होते हैं.

कानों में पड़ते सीसे से
मौन मगर रह जाते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
गूंगे होते हैं.

अंतस कर जाते छलनी
असत्य ओढ़ जब आते हैं.
ये सच ही क्यूँकर
नादां होते हैं.

Sunday 24 February 2013

वो हलकी फुहार ....मंद समीर और फिर इन्द्रधनुष के रंग ......सब कुछ इतना प्यारा था कि बरबस ही कुछ पंक्तियाँ मुख से निकल पडीं ................


छू कर हौले से गुज़रे
हवाओं के पर
गुलमोहर से बरसे पड़े
फूल अंजुलि भर

पात-पात सरसराये
मोती गये फिसल
मुख पे रखते चुम्बन
हँसते रहे चंचल

बुंदियाँ रुक-रुक बरसीं
छम-छम ...छमा-छम
इन्द्रधनुष की रंगत
मेघ-दलों का मन

बदरा के पीछे से झाँके
ढली धूप के रंग
स्वर्ण-किरन यूँ चमकीं
नदिया का दर्पण

बयार सुरभित रागिनी
सन सन ....सनन सनन .....
सुमन-कलिका महक उठीं 
वसुधा हुई चंदन

तान लिए मल्हार की 
बजते मन मृदंग
पुलकित उर गूंज उठी 
प्रीत की सरगम

Thursday 21 February 2013

साँसों का चलना और बस चलते रहना .....बेसबब ...क्या सचमुच यही कहलाता है जीना .....नहीं ना ....तो चलो आज खुद से मुलाक़ात की जाए ..........

 
यूँ आईने से मुलाक़ात किया करो
कभी खुद को भी यारा जिया करो
 
ज़िन्दगी के सफर में बिछड़े कई
कभी नाम उनका भी लिया करो
 
रूठों को मनाना नामुमकिन नहीं
कभी सब्र के जाम पिया करो
 
न रहो अपने ही उजालों में ग़ुम
अँधेरों को भी रोशन किया करो
 
मौत के इंतज़ार में बेज़ार हो क्यूँ
ज़िन्दगी को एहतराम दिया करो
 
ढूंढते हो दैर-ओ-हरम में सुकूं
क्यूँ न गैरों के ज़ख्म सिया करो

Wednesday 20 February 2013

ये बादल ...

अक्सर बादलों को उड़ते देखा है......कभी रोकना चाहा तो रुके नहीं अपनी धुन में मग्न दूर जाते रहे.....कभी मेरे चुप रहने पर भी गरजते बरसते रहे......



ये बादल बड़े अजीब हैं...
घिर आते हैं....दूर तलक
और लौट जाते फिर
बिन बरसे ही.......

ये बादल बड़े अजीब हैं...
रस्ता भटक.....चले आते
बे-मौसम बरस जाते
बिन गरजे ही.........

तुम्हारी आवाज......

तुम्हारी आवाज......

मरघट सी मौन
अव्यथी ....असंपृक्त
हवाओं में गुनगुनाती
बस अपना ही राग
गुजरती रही हर बार
अनसुना कर
परिचित सा
.......आर्तनाद
ओढ़ाने चली आती है अब
अनावृत बिखरे सपनों को 
बेधडक निर्लज्ज सी
लिए खुरदुरा मटमैला
एक झीना सा ...मखमली टाट
मरघट की राख लपेटे
निरंकुश ...निष्ठुर
तुम्हारी आवाज