Monday 23 December 2013

संबंधों के रेशे



संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
शून्य से हो के शुरू
नित नये समीकरणों से गुज़रते
पहुँचना चाहते थे
जहाँ हम दोनों हों समान हक़दार

संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
सहेज कर पिरोते ताना-बाना
सरल से जटिल की ओर
बुनना चाहते थे बूटे
जिनमें रंग सभी हों चमकदार

संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
अहम के आकड़ों में
रह गये उलझे ...घायल
टूटे ताने-बानों में
बिखरे बूटों को समेटते
रोज़ बदल रहे हैं
तुम्हारा और मेरा किरदार


Sunday 1 December 2013

क्यूंकि ...

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
सामंजस्य बिठाना था
हर सुख हर दुःख से
पिंजरे वही थे
आस-निराश के
आँसू और मुस्कान के
बस ...बदल गया था
हवाओं का रुख और
पानी का स्वाद
...बदल गये थे
कुंजी से खेलते हाथ

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
क्यूंकि नहीं होता
अपना आसमान
पिंजरे के पंछी के पास
और ना ही होती है
अपनी कोई धरती
सलाखों पर टिके पाँव की
सपने नहीं होते आँखों में
भरी होती है कृतज्ञता
आधी मुठ्ठी दानों के वास्ते

मुझे स्वीकारना था
जो भी दिया गया
हँस कर ...विनम्रता से
बिना प्रश्न किये कि
किसने लिखे ये नियम
किसने बनाया संविधान
क्यूँ हो मेरी इच्छा से इतर
मेरी नियति का निर्धारण

हाँ ....मैंने मारी है चोंच
उन्हीं हाथों को ...
जिनमे भरे थे दाने मेरे वास्ते
क्यूंकि मुझे चाहिये थी
फूलों की महक से लदी
मेरे हिस्से की ड़ाल
आज़ाद बादलों से भरा
मेरे हिस्से का आकाश
वो सुख और वो दुःख भी
जिन्हें बाँट सकूँ अपनों के साथ
थक चुकी हूँ  ...आँसू की ताल पर
ख़ुशी का गीत गाते
अब बढ़ चली हूँ मैं
...तुम्हारी हद से बाहर
क्यूंकि .........
नहीं स्वीकारना मुझे
हँस कर ...विनम्रता से
पिंजरे का जीवन