Monday 25 November 2013

याद



कब से पड़ी थी चौखट पे
नैनन में थी समाये रही
आ थोडा तुझे निचोड़ लूँ
अरी !बच के कहाँ जायेगी

करती है मुझसे दिल्लगी
नये खेल काहे रचाय री
धर लूँगी बैया आज तो
अरी !बच के कहाँ जायेगी

कूक-कूक मन को रिझाये
फुदके है ज्यूँ मुनिया कोई
ले पंख तेरे मैं भी उड़ूँ
अरी !बच के कहाँ जायेगी

Thursday 7 November 2013

हवायें

लौ को बचाने की जुगत में
ढीठ हवाओं से जूझ रहे थे
.....कुछ मासूम दिये
जाने कब ...अचानक
मनचली हवाओं ने लहरा कर
......तीली और बारूद
उड़ा दी....रोशनी की सारी कतरनें
अब रह गया है शेष .....
चीख .....धुंआ
बेबसी के टुकड़े
और नमकीन आँखों में
बुझी चिंगारियों की राख 

हवाओं पे मचलता
नेपथ्य का संगीत
आज भी गुनगुनाता है
वही पुराना ख़ुशनुमा  गीत
फिर भी जाने क्यूँ ...
मायने ....बदले से लगते हैं 
ख़ुशी की जगह अब
चिपक गये हैं अर्थ ....घावों पर
...नमक की तरह

अनवरत ...अबाधित
अपनी सुविधा से
बही जा रही हैं  ....
हवाओं को नहीं होता सरोकार
दिये की मासूमियत से