डूबते-डूबते फिर
धीरे-धीरे उबरती हूँ
छितरी हुई
बिखरी सी
सागर के थपेड़ों से टूटी
रह जाती हूँ मात्र अवशिष्ट समान
जानती हूँ ... मैं ही हूँ दुर्गा
मैं ही सिंदूर खेलती स्त्री
और मैं ही हूँ वो अभिशप्त
जिससे छीना गया अधिकार
सिंदूर खेलने का
दुर्गा-सम कहलाने का
... और फिर जान जाती हूँ
भले ही मिट्टी गढ़ ली जाती है बार-बार
पर सिंदूर-दान की छाया को
टूटी-बिखरी 'दुर्गा' को
फिर कभी नहीं दिया जाता
लाल रंग का तनिक-सा भी अधिकार
बहुत खूब शिखा सचमुच विडंबना है ये समाज की टूटी बिखरी स्त्री को संबल के बजाय मिलती है तो बस प्रताड़ना
ReplyDeletehttp://bulletinofblog.blogspot.in/2014/10/2014-7.html
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसमाज का दुर्भाग्य है ये ...
ReplyDeleteबाखूबी लिखा है नारी के इस दर्द को ...
बेहतरीन लिखा आपने !
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