Tuesday 7 October 2014

अवशिष्ट

डूबते-डूबते फिर  
धीरे-धीरे उबरती हूँ 
छितरी हुई  
बिखरी सी 
सागर के थपेड़ों से टूटी 
रह जाती हूँ मात्र अवशिष्ट समान 

जानती हूँ ... मैं ही हूँ दुर्गा 
मैं ही सिंदूर खेलती स्त्री 
और मैं ही हूँ वो अभिशप्त 
जिससे छीना गया अधिकार 
सिंदूर खेलने का 
दुर्गा-सम कहलाने का 

... और फिर जान जाती हूँ 
भले ही मिट्टी गढ़ ली जाती है बार-बार 
पर सिंदूर-दान की छाया को 
टूटी-बिखरी 'दुर्गा' को  
फिर कभी नहीं दिया जाता 
लाल रंग का तनिक-सा भी अधिकार 

 

6 comments:

  1. बहुत खूब शिखा सचमुच विडंबना है ये समाज की टूटी बिखरी स्त्री को संबल के बजाय मिलती है तो बस प्रताड़ना

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  2. http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/10/2014-7.html

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  3. समाज का दुर्भाग्य है ये ...
    बाखूबी लिखा है नारी के इस दर्द को ...

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  4. बेहतरीन लिखा आपने !

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