Thursday 7 November 2013

हवायें

लौ को बचाने की जुगत में
ढीठ हवाओं से जूझ रहे थे
.....कुछ मासूम दिये
जाने कब ...अचानक
मनचली हवाओं ने लहरा कर
......तीली और बारूद
उड़ा दी....रोशनी की सारी कतरनें
अब रह गया है शेष .....
चीख .....धुंआ
बेबसी के टुकड़े
और नमकीन आँखों में
बुझी चिंगारियों की राख 

हवाओं पे मचलता
नेपथ्य का संगीत
आज भी गुनगुनाता है
वही पुराना ख़ुशनुमा  गीत
फिर भी जाने क्यूँ ...
मायने ....बदले से लगते हैं 
ख़ुशी की जगह अब
चिपक गये हैं अर्थ ....घावों पर
...नमक की तरह

अनवरत ...अबाधित
अपनी सुविधा से
बही जा रही हैं  ....
हवाओं को नहीं होता सरोकार
दिये की मासूमियत से

13 comments:

  1. हवाओं को नहीं होता सरोकार दिए की मासूमियत से....
    सच!!
    बहुत सुन्दर..

    अनु

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  2. वाह रे दुनिया

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  3. कल 09/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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    1. इस सम्मान के लिये बहुत-बहुत आभार

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  4. बहुत गहरी पंक्तियाँ लिखी हैं आपने. धन्यवाद इस रचना के लिए.

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  5. अपना अपना धर्म है ... अपना कर्म है ...
    ये लड़ाई तो सदियों से चली आ रही है ... गहन भाव लिए रचना ...

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  6. हवाओं का कब सरोकार रहा है दीपों से । बहुत खूब । देखिये हम आ भी गए ।

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  7. अनवरत अबाधित बहती जाने वाली हवाओं कब होता है सरोकार दिये की मासूमियत से।
    बहुत सुंदर मार्मिक।

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  8. दीदी बहुत खूब मज़ा आ गया.....पर लगता आप मेरे ब्लॉग का पता भूल गयी....
    कभी आइये देख जाइए काफी सारा कूड़ा-कर्कट जमा हो गया हैं....!!
    खामोशियाँ

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  9. यही दुनिया है शिखाजी ..बहुत सुन्दर रचना

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  10. बहुत गहरे भाव , दुनियां अपने रफ़्तार से ही चलती है , किसी की मासूमियत या बेछार्गी के लिए ठहरती नहीं ..

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  11. अपना अपन फ़र्ज़... अपना अपना कर्म. सुन्दर रचना के लिए बधाई.

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