Monday 22 July 2013

दास्तां समझ आती नहीं .....

खो गया वजूद मेरा यूँ 
वक़्त की सख्त दरारों में 
मेरे हिस्से की धूप अब 
मुझ तक ही आ पाती नहीं 

आसमां पे टँगा रहा जो  
मीनारों तक पहुंचा है 
बिखरे टुकड़े चाँदनी,पर 
छत तक सीढ़ी जाती नहीं

तारों की झिलमिलाहट में
सपने भी मुस्कुराये थे  
अँधेरा हुआ है आसमां 
सपनों को सुध आती नहीं 

हर मरहला जवां रौनकें
दिशाओं में है रवानगी 
क्यूँ उलझी राहें इस कदर 
मंज़िल किधर बताती नहीं 

नर्म बादलों के कारवां 
बरसते गुज़रे आँगन से 
सदी पुरानी है बात ये 
अब मन को बहलाती नहीं 

दरो दीवार ही खो गये 
बेहिस ज़िन्दगी सँवारते 
जीत और कब हार अपनी 
दास्तां समझ आती नहीं  

12 comments:

  1. सुन्दर...............
    बहुत सुन्दर!!!

    अनु

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  2. हर्दय स्पर्शी लेखन .... बहुत ही भावपूर्ण
    नर्म बादलों के कारवाँ
    बरसते गुजरे आगँन से

    सदी पुरानी बात है
    अब मन को बहलाती नही

    बेहद मर्मस्पर्शी लेखन गुरु जी ..

    सादर
    अनुराग त्रिवेदी - एहसास

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  3. मन में प्रेम हो तो सब सुन्दर लगता है ... वर्ना मन कहीं नहीं बहलता ...

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  4. कल 25/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  5. दरो दिवार ही खो गये --वाह क्या बात कही है आपने

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  6. निःशब्द करती बेहतरीन @@@@@@@

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  7. बहुत बढ़िया प्रस्तुति हार्दिक बधाई

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  8. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति ..बहुत खूबसूरती से बयां की आपने अपने मन की बात दी ..मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी ये रचना ..बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए :-)

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  9. शिखा : बहुत गमगीन कर देती रचना. दूसरा अंतरा दुर्बोध लगा. बाकी सभी चुस्त और बारूद के बक्से जैसे शक्तिशाली है. शास्त्रीय बंदिश की तरह हरकतें बहुत है भाव प्रस्तुति में जो अतुल है. कठिन जमीन पर काम.धन्यवाद.

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  10. उत्तम प्रस्तुति।।।

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