आज मद में चूर है
कल रोयेगा ज़ार-ज़ार
धरती के आंचल को यूँ
ना कर तू तार-तार
पर्वत-शिलायें कर देगीं
अहम के टुकड़े हज़ार
सागर भी लील जायेगा
घमंड का कारोबार
मरुभूमि के व्यंग का
तब होगा कोई जवाब ?
नागफनी के फूलों से
कब सजे किसी के ख्वाब !
सूरज का अट्टाहास जब
भेदेगा तेरे कर्ण
काँच से चुभ जायेगें
रेत के भी तृण
चांदनी भी मैली धूसर
आग ही बरसायेगी
उन्मत्त वायु प्रचंड तरंगें
तन-मन झुलसा जायेगीं
सूखे जल-प्रवाह से
कैसे बुझेगी प्यास ?
ठूँठ हुये तट-बंधों पर
कब तक पालेगा आस ?
धरती का रुदन ही फिर
बन जायेगा श्राप
बस पीड़ा संग होगी तेरे
और होगा संताप
कह पायेगा जीत इसको
जब ख़ाली होगें हाथ !
सन्नाटों की बस्ती में
फिर रोती होगी तान
मत कर कोशिश बनने की तू
जगत-पिता भगवान
कर ले जीवित मन में बस
एक सच्चा इंसान .
बहुत ही यथार्थ परक, सामयिक रचना . आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (24.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
Deleteसटीक और सार्थक रचना ..... प्रकृति अभी यही सिखा रही है ।
ReplyDeleteइंसान को अपनी क्षमताओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है. और सच्चा इंसान होना बहुत मुश्किल. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeletelatest post जिज्ञासा ! जिज्ञासा !! जिज्ञासा !!!
बहुत सुंदर कमाल की भावाव्यक्ति.
ReplyDeleteकर तो दिया तार-तार ,
ReplyDeleteतभी तो रोता है अब
जार जार |
सटीक रचना, आभार.. यहाँ भी पधारे http://shoryamalik.blogspot.in/2013/06/blog-post_21.html
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक और सामयिक रचना ।
ReplyDeleteशिखा : समानुभूति. वृक्ष की शाखाओं का अगर कोई व्याकरण है और चिड़ियों की भाषा है तो यह उनका रुदनगान है. अंतिम दो पंक्ति मुखर लगती है....
ReplyDeletelajawab-***
ReplyDeleteइंसान बनना ही नहीं आता हमें ..
ReplyDeleteमंगल कामनाएं आपकी कलम के लिए !
सच मेँ हम अगर सच्चे इन्सान बन जाएँ तो क्या बात है ! वही हम नहीँ बन पाते । खेद है । बधाई । सस्नेह
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