Sunday 23 June 2013

धरती का रुदन



आज मद में चूर है 
कल रोयेगा ज़ार-ज़ार 
धरती के आंचल को यूँ 
ना कर तू तार-तार 
पर्वत-शिलायें कर देगीं 
अहम के टुकड़े हज़ार 
सागर भी लील जायेगा 
घमंड का कारोबार 
मरुभूमि के व्यंग का 
तब होगा कोई जवाब ?
नागफनी के फूलों से 
कब सजे किसी के ख्वाब !
सूरज का अट्टाहास जब 
भेदेगा तेरे कर्ण 
काँच से चुभ जायेगें 
रेत के भी तृण 
चांदनी भी मैली धूसर 
आग ही बरसायेगी 
उन्मत्त वायु प्रचंड तरंगें 
तन-मन झुलसा जायेगीं 
सूखे जल-प्रवाह से 
कैसे बुझेगी प्यास ?
ठूँठ हुये तट-बंधों पर 
कब तक पालेगा आस ?
धरती का रुदन ही फिर 
बन जायेगा श्राप 
बस पीड़ा संग होगी तेरे 
और होगा संताप 
कह पायेगा जीत इसको 
जब ख़ाली होगें हाथ !
सन्नाटों की बस्ती में 
फिर रोती होगी तान 
मत कर कोशिश बनने की तू 
जगत-पिता भगवान 
 कर ले जीवित मन में बस 
एक सच्चा इंसान .

14 comments:

  1. बहुत ही यथार्थ परक, सामयिक रचना . आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (24.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया

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  2. सटीक और सार्थक रचना ..... प्रकृति अभी यही सिखा रही है ।

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  3. इंसान को अपनी क्षमताओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है. और सच्चा इंसान होना बहुत मुश्किल. सुन्दर रचना.

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  4. बहुत-बहुत शुक्रिया

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  5. बहुत सुंदर कमाल की भावाव्यक्ति.

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  6. कर तो दिया तार-तार ,
    तभी तो रोता है अब
    जार जार |

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  7. सटीक रचना, आभार.. यहाँ भी पधारे http://shoryamalik.blogspot.in/2013/06/blog-post_21.html

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  8. बहुत सुंदर सार्थक और सामयिक रचना ।

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  9. शिखा : समानुभूति. वृक्ष की शाखाओं का अगर कोई व्याकरण है और चिड़ियों की भाषा है तो यह उनका रुदनगान है. अंतिम दो पंक्ति मुखर लगती है....

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  10. इंसान बनना ही नहीं आता हमें ..

    मंगल कामनाएं आपकी कलम के लिए !

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  11. सच मेँ हम अगर सच्चे इन्सान बन जाएँ तो क्या बात है ! वही हम नहीँ बन पाते । खेद है । बधाई । सस्नेह

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