Monday 14 April 2014

अधिकार का सवाल

लोमड़ की टोली ने जम कर शिकार किया 
माँस इकठ्ठा कर दावतें उड़ायीं 
लहू के रंगों से आतिश सजायी 
जो जी भर गया तो 
कुछ निशानियाँ रख लीं जश्न की 
और पूँछ फटकारते 
फेंक दिये माँस के लोथड़े सड़ने के लिये 

उनके साथ चले आये थे 
खून सने पंजों के निशान 
उनके दाँतों में अभी भी 
कुछ टुकड़े माँस अटका रहा था 
सड़ांध से उठती तेज़ गंध 
पूरे जंगल पर मंडराने लगी 
जंगल चीत्कार उठा 
लोमड़ों की तलाशी हुई 
और कील ठोंक दी गयीं उनकी पूँछ में 

दोष किसका है  ... 
स्याना लोमड़ बता रहा है 
कि अकसर दावत उड़ाता रहा 
शिकार खुद लोमड़ के साथ 
अब ... 
सारे लोमड़ एकजुट किये जा रहे हैं 
जंगल के खिलाफ 
जंगल-राज नहीं चलने दे सकते वो 
कोई कुछ भी कहे 
शिकार तो होना ही चाहिये 
ये अधिकार का सवाल है 

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति .. सभी लोमड़ एक जुट किये जा रहे हैं..... शिकार तो होना ही चाहिए ...

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  2. बहुत गहरी बात को लक्षित किया है इस रचना के द्वारा ...बहुत प्रभावी ...

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  3. अर्थपूर्ण रचना, बधाई.

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  4. shikha ji, Aaj sambhvtah pratham pryas hai mera aapki rachnaon tak pahunchne ka. Ek ek kar kai rachnayen padh kar dekhi..man nahi bhara..kya khoob likhtin hain aap..vishesh taur par 'Sambandhon ke reshe' rachna dil ko chu gai..bahut bahut badhai aapko.

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  5. वैचारिक भाव लिए रचना

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  6. वाकई सवाह ऐसे ही अधिकारों का है..सुंदर रचना।।।

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  7. सुन्दर व्यंग्य किया है. अकसर पूरा शो ही लिखा हुआ रहता है. और हम अपने मन को भरमाने देते हैं.

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  8. This comment has been removed by the author.

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