संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
शून्य से हो के शुरू
नित नये समीकरणों से गुज़रते
पहुँचना चाहते थे
जहाँ हम दोनों हों समान हक़दार
संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
सहेज कर पिरोते ताना-बाना
सरल से जटिल की ओर
बुनना चाहते थे बूटे
जिनमें रंग सभी हों चमकदार
संबंधों के रेशे
कुछ मुलायम कुछ चुभते से
अहम के आकड़ों में
रह गये उलझे ...घायल
टूटे ताने-बानों में
बिखरे बूटों को समेटते
रोज़ बदल रहे हैं
तुम्हारा और मेरा किरदार