देखो! रोज़ की तरह
उतर आयी है
सुबह की लाली
मेरे कपोलों पर
महक उठी हैं हवायें
फिर से ...
छू कर मन के भाव
पारिजात के फूल
सजाये बैठे हैं रंगोली
पंछी भी जुटा रहे हैं
तिनके नये सिरे से
सजाने को नीड़
सुनो! कोयल ने अभी-अभी
पुकारा हमारा नाम
अच्छा,कहो तो...
आज फिर लपेट लूँ
चंपा की वेणी अपने जूडे में
या सजा लूँ लटों में
महकता गुलाब
ओह! कुछ तो कहो
याद करो ... तुमने ही बाँधा था मुझे
प्रेम के ढ़ाई अक्षर में
माना समय के साथ दौड़ते
तुम हो गये हो
परिष्कृत और विराट
उतर आयी है
सुबह की लाली
मेरे कपोलों पर
महक उठी हैं हवायें
फिर से ...
छू कर मन के भाव
पारिजात के फूल
सजाये बैठे हैं रंगोली
पंछी भी जुटा रहे हैं
तिनके नये सिरे से
सजाने को नीड़
सुनो! कोयल ने अभी-अभी
पुकारा हमारा नाम
अच्छा,कहो तो...
आज फिर लपेट लूँ
चंपा की वेणी अपने जूडे में
या सजा लूँ लटों में
महकता गुलाब
ओह! कुछ तो कहो
याद करो ... तुमने ही बाँधा था मुझे
प्रेम के ढ़ाई अक्षर में
माना समय के साथ दौड़ते
तुम हो गये हो
परिष्कृत और विराट
प्रेम सदा सजीव रहता है ........बस लम्हों को तलाशना पड़ता है ...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ..!
ReplyDeleteRECENT POST - प्यार में दर्द है.
असंवाद का समय चाहे कितना लम्बा हो जाए, सच्चे बंधन समय से कहाँ हिले हैं. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ... समय के साथ कुछ बंधन मजबूत हो जाते है व कुछ ढीले पड़ जाते हैं .. बढियां प्रवाहपूर्ण रचना .
ReplyDeleteबहुत कोमल और सुंदर रचना।
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteप्रेम में छिपा दर्द !!!
बहुत सुन्दर..
अनु
शिखा जी , कमाल की कविता है । प्रेम की विकलता बडे ही मार्मिक रूप में व्यक्त हुई है । प्रिय की स्वीकारोक्ति में ही सारा सौन्दर्य निहित है अन्यथा सब व्यर्थ..।
ReplyDeleteप्रेम ही तो है जो शाश्वत है ... रहता है सदा ...
ReplyDeleteसमर्पित प्रेम की बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteप्रेम का ढाई अक्षर............ सबसे प्यारा :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना... शिखा जी
ReplyDeleteman mohark..ati sundar..komal bhavpoorna rachna..
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete☆★☆★☆
देखो! रोज़ की तरह उतर आयी है सुबह की लाली मेरे कपोलों पर
महक उठी हैं हवायें फिर से ... छू कर मन के भाव
पारिजात के फूल सजाये बैठे हैं रंगोली
पंछी भी जुटा रहे हैं तिनके नये सिरे से सजाने को नीड़
सुनो! कोयल ने अभी-अभी पुकारा हमारा नाम
वाह ! वाऽह…! वाऽऽह…!
बहुत सुंदर दृश्य-चित्र उकेरा है आपने आदरणीया शिखा गुप्ता जी !
और यह प्रश्न -
अच्छा,कहो तो...
आज फिर लपेट लूँ चंपा की वेणी अपने जूडे में
या सजा लूँ लटों में महकता गुलाब
कोई हृदयहीन ही उत्तर में मना करेगा...
सुंदर !
...और हां,
प्रेम-पथ के पथिक परिष्कृत कभी नहीं होते
विराट सभी होते हैं...
सुंदर कविता के लिए हृदय से साधुवाद स्वीकार करें ।
मुझे ऐसी प्रेम-कविताएं भीतर तक छू जाती हैं...
पुनः आभार और मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार