Monday, 22 July 2013

दास्तां समझ आती नहीं .....

खो गया वजूद मेरा यूँ 
वक़्त की सख्त दरारों में 
मेरे हिस्से की धूप अब 
मुझ तक ही आ पाती नहीं 

आसमां पे टँगा रहा जो  
मीनारों तक पहुंचा है 
बिखरे टुकड़े चाँदनी,पर 
छत तक सीढ़ी जाती नहीं

तारों की झिलमिलाहट में
सपने भी मुस्कुराये थे  
अँधेरा हुआ है आसमां 
सपनों को सुध आती नहीं 

हर मरहला जवां रौनकें
दिशाओं में है रवानगी 
क्यूँ उलझी राहें इस कदर 
मंज़िल किधर बताती नहीं 

नर्म बादलों के कारवां 
बरसते गुज़रे आँगन से 
सदी पुरानी है बात ये 
अब मन को बहलाती नहीं 

दरो दीवार ही खो गये 
बेहिस ज़िन्दगी सँवारते 
जीत और कब हार अपनी 
दास्तां समझ आती नहीं  

Friday, 12 July 2013

ख्वाहिश की झील

ख्वाहिशों की झील में
काई ने घर बनाया है
नीला सा आसमान
थोड़ा सा धुंधलाया है

किनारों की सील में  
गहराता है सन्नाटा
खरपात ने दरारों में
फिर आसरा सजाया है

सीढ़ियाँ लिये बैठी हैं  
खामोशी के कदम
युगों से कोई प्यासा भी
इस तरफ कहाँ आया है

आलीशान गुम्बदी
कुकुरमुत्ती हवेली से  
भरमाये हैं मण्डुक
आह!क्या रुतबा पाया है

अमरबेल का हरियाया फर्श
मछलियों की छत पर
चुपके से पाँव  पसार
बढ़ता चला आया है

पानी को ललचायी
साहिल पे बंधी डोंगी
उदास किनारों को  
इस ने हमराज़ बनाया है

अमलतास से लिपटा
झील का सूना कोना
गुमचों में उमंगें भरता  
इकलौता परछाया है

Wednesday, 3 July 2013

चंचल नदी

आत्ममुग्धा आत्ममग्न
कलकल कर चली निनाद
पर्वत-पर्वत उलाँघती
बही जाती थी चंचल नदी

हरियाली को पंख लगा
निपट जीव को कर सजीव
अमिय रस धाराओं सी
बही जाती थी चंचल नदी

निर्मल काया सजल हृदय
तरल सुकोमल स्पर्श से
उपल-शिलायें तराशती
बही जाती थी चंचल नदी

पखार तप्त रवि-वल्लरी
झिलमिल आँचल पसार
वारिद पे जीवन वारती
बही जाती थी चंचल नदी

मन-वचन औ' कर्म में भी
छेड़ सृजन की रागिनी
पग-पग जीवन सँवारती
बही जाती थी चंचल नदी

कुत्सित विध्वंस पाश में
जा गिरी धारा थी निश्छल
विस्फरित नयन ताकती
अकुलायी बहुत चंचल नदी

पादप-विहीन पर्वतों में
खोजती है हरित मग
उन्मत बल-वेग धारती
छटपटाती है चंचल नदी

शनै:शनै: घटती हिल्लोर
कोण-कोण के ह्रास से
पतित अवशेष निस्तारती
मलिन हो रही चंचल नदी

विपदा में है घिरी खड़ी
भागीरथी असहाय सी
कब तक सहेगी त्रास ये
बह न पाएगी चंचल नदी