मैं बीत गयी इक और साल ...
लम्हे-लम्हे कुछ ठहरी सी
लम्हा-लम्हा ही बढ़ी चली
विकट रहा समय का जाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
रोयी तो मुस्कायी भी
सपनों की परछाई सी
अभी सुकूं अभी बेहाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
पलकें ना झपकाई थीं
रात कहाँ मुरझाई थी
जलना जिसे, बुझी मशाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
हवा पे जैसे महक बसी
धूप-छाँव सम चंचल सी
हर लम्हा अजब ही चाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
पेशानी गहराई सी
उम्र की ज़द में आयी सी
गया समय हुआ कंकाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
लम्हे-लम्हे कुछ ठहरी सी
लम्हा-लम्हा ही बढ़ी चली
विकट रहा समय का जाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
रोयी तो मुस्कायी भी
सपनों की परछाई सी
अभी सुकूं अभी बेहाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
पलकें ना झपकाई थीं
रात कहाँ मुरझाई थी
जलना जिसे, बुझी मशाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
हवा पे जैसे महक बसी
धूप-छाँव सम चंचल सी
हर लम्हा अजब ही चाल
मैं बीत गयी इक और साल ...
पेशानी गहराई सी
उम्र की ज़द में आयी सी
गया समय हुआ कंकाल
मैं बीत गयी इक और साल ...